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बस्तर की धरती पर रावण दहन नहीं – अहंकार का विसर्जन होता है ✍🏻 डॉ. रूपेन्द्र कवि

  1. एक अलग दृष्टिकोण: दशहरा का बस्तर स्वरूप
    जब देशभर में दशहरा ‘रावण दहन’ के प्रतीक से जुड़ा होता है, बस्तर की धरती पर यह पर्व एक भीतर की यात्रा बन जाता है — जहां रावण का पुतला नहीं जलता, बल्कि अहंकार, वर्चस्व और आत्मविस्मृति का विसर्जन किया जाता है।
    यह विजय का पर्व नहीं, बल्कि विनय का पर्व है।
  2. 75 दिन का सांस्कृतिक–आध्यात्मिक उत्सव
    बस्तर दशहरा लगभग 75 दिनों तक चलने वाला एक अनूठा लोक–आध्यात्मिक उत्सव है, जो देवी दंतेश्वरी की उपासना के केंद्र में समाज, प्रकृति, श्रद्धा और समावेश की ऐसी सांस्कृतिक संरचना रचता है, जो न केवल पुरातन है बल्कि आश्वस्त करने वाली भी।
  3. बस्तर निवासी की दृष्टि से
    एक मानवविज्ञानी के रूप में, और बस्तर की माटी में पले-बढ़े व्यक्ति के नाते, मैंने इस पर्व को केवल अध्ययन का विषय नहीं माना — यह मेरे जीवन, दृष्टि और संवेदना का जीवंत स्रोत है।
    दशहरे का यह स्वरूप बस्तर के जनजीवन का आईना है, जहाँ शक्ति तलवार में नहीं, संयम, समर्पण और समुदाय में निहित है।
  4. संस्कृति में लयबद्ध परंपराएं — पर्व के प्रमुख आयाम
  • पाटा जात्रा
    इस पर्व का आरंभ ‘पाटा जात्रा’ से होता है, जिसमें शाल वृक्ष की पूजा कर देवी रथ निर्माण का पहला संकेत दिया जाता है — यह प्रकृति के साथ सहजीवन की स्वीकृति है।
  • काछन गदी
    ‘काछन गदी’ में एक कन्या को देवी का प्रतीक मानकर अनुमति ली जाती है — यह नारी शक्ति की सम्माननीय मान्यता है, जहां कोमलता ही आदेश बन जाती है।
  • जोगी बिठाई
    ‘जोगी बिठाई’ अनुष्ठान में एक युवक भूमि में समाधिस्थ बैठता है — यह त्याग, आत्म-निवेदन और तपस्विता की परंपरा है, जो आज की स्पर्धात्मक मानसिकता को विनय का पाठ सिखाती है।
  • रथ परिक्रमा
    ‘रथ परिक्रमा’ में समाज के विविध वर्गों की भागीदारी — आदिवासी समाजों के समावेश — यह दर्शाता है कि देवी की शक्ति केवल मंदिरों में नहीं, समाज की हर सांस में समाहित है।
  • ओहदी (विदाई)
    दशहरे के अंतिम चरण में देवी की ‘ओहदी’ (विदाई) होती है — यह स्मरण कराती है कि हर पर्व की समाप्ति, एक नई चेतना की शुरुआत है।
  1. मानवविज्ञानी दृष्टिकोण: बस्तर की आत्मा का संवाद
    बस्तर दशहरा किसी पौराणिक कथा का दोहराव नहीं, बल्कि जनजातीय चेतना का जीवंत उद्घोष है।
    यह पर्व दिखाता है कि कैसे परंपराएं राजा के रथ से नहीं, जन के मन से चलती हैं।
    राजा भी इसमें एक सहभागी मात्र होता है, निर्णय ‘काछन देवी’ से लिया जाता है, और रथ को खींचते हैं सैकड़ों सामान्य लोग — यह लोकशक्ति की सर्वोच्चता का मौन उद्घोष है।
    बस्तर के भीतर दशहरा सांस्कृतिक लोकतंत्र है — जो कहता है कि शक्ति किसी सत्ता में नहीं, सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक उत्तरदायित्व में निहित है।
  2. समकालीन संदेश: विजय से आगे विनय
    आज जब समाज प्रदर्शन, प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत वर्चस्व की होड़ में है, बस्तर दशहरा सिखाता है:
    कि विजय, आत्मविजय से बड़ी होती है।
    कि अहंकार का विसर्जन ही सच्ची पूजा है।
    और यह कि संस्कृति केवल मनाने की नहीं, जीने की परंपरा है।
    यह पर्व हमें बार-बार कहता है:
    “रावण को मत जलाओ,
    अपने भीतर के रावण को पहचानो।”
  3. निष्कर्ष: माटी से जुड़ी आत्मा की आवाज़
    बस्तर दशहरा मेरे लिए कोई पर्व नहीं — यह जीवन की परिभाषा है।
    जहाँ देवी रथ पर सवार नहीं होतीं, वह तो हर कंधे पर हैं।
    मैंने अपने शोधों में, अपने अनुभवों में और अपने लेखन में यह देखा है —
    कि बस्तर की परंपराएं केवल इतिहास नहीं, एक जीवित उत्तरदायित्व हैं।
    इस दशहरे, चलिए हम किसी प्रतीक को नहीं,
    अपने भीतर के अंधकार को जलाएं।
    और वहां से जन्म दें —
    एक नई, संवेदनशील, समावेशी और सह जीवी चेतना को।
    🔖 लेखक परिचय
    डॉ. रूपेन्द्र कवि
    मानवविज्ञानी, साहित्यकार, और परमार्थी | बस्तर निवासी, लेखक वर्तमान में उपसचिव राजभवन है

Ramgopal Bhargav

मेरा नाम रामगोपाल भार्गव है, मैं (नवा बिहान न्यूज़) पोर्टल का संपादक हूँ। Navabihannews.com एक हिन्दी न्यूज़ पॉर्टल है इस पोर्टल छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश दुनियाँ की खबरों को प्रकाशित किया जाता है।

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