
शरद की निस्तब्ध चाँदनी रात,
जैसे वाणी में उतरता कोई श्लोक।
बस्तर की भूमि — वन, जल, शिला और चेतना,
जहाँ हर कण में गूंजता है प्रकृति का आलोक।
यह भूमि — केवल वनों की नहीं,
वाणी और संस्कृति की भी जीवंत मिसाल है।
जहाँ वृक्षों की छाया में,
कृष्ण की बांसुरी फिर से जीवंत होती है।
मैं और मेरी प्रिये, धर्मपत्नी मोनिका,
राधा-कृष्ण की स्मृति में निमग्न,
मन से मन का आलोक संजोते हुए,
प्रेम और दर्शन की कविता रचते हैं।
हमारे छोटे दीप — वाणी, धनी और उत्सवकृष्ण,
माँ लक्ष्मी के आशीष से समृद्ध,
शरद की अमृतमयी रात्रि में,
खीर की मधुर प्रतीक्षा में चाँदनी संग मुस्काते हैं।
मधुर है यह क्षण, सौम्य है यह आलोक,
ना कोई विक्षेप, ना कोई शोर।
केवल प्रेम, शांति और श्रद्धा —
शरद पूर्णिमा की रजत-छाया में।
और इस पुण्य रात्रि पर,
कवि रूपेन्द्र, बस्तर की माटी से,
हृदय की संपूर्ण श्रद्धा के साथ,
आप सभी सहृदयों को विनम्रता से कहता है —
“जोहार!”